रवींद्रनाथ टैगोर, जिन्हें हम ‘गुरुदेव’ के नाम से भी जानते हैं, केवल एक साहित्यकार नहीं, बल्कि एक सांस्कृतिक क्रांति के जनक थे। 2025 में उनकी 164वीं जयंती 7 मई को मनाई जाएगी, जो उनके जीवन और योगदान को याद करने का अवसर है। बंगाल में यह पर्व बंगाली पंचांग के अनुसार ’25 बोइशाख’ को ‘पंचोशी बोइशाख’ के रूप में धूमधाम से 9 मई को मनाया जाता है।
रवीन्द्रनाथ टैगोर (Rabindranath Tagore) भारत के एक ऐसे महान कवि, लेखक, दार्शनिक, संगीतकार और शिक्षाविद् थे जिन्होंने भारतीय संस्कृति को विश्व पटल पर एक नई पहचान दिलाई। वे एशिया के पहले नोबेल पुरस्कार विजेता थे और भारत का राष्ट्रगान भी उनकी ही रचना है।
प्रारंभिक जीवन
रवींद्रनाथ टैगोर का जन्म 7 मई 1861 को कोलकाता (तत्कालीन कलकत्ता) के एक समृद्ध और सांस्कृतिक रूप से सशक्त ठाकुर परिवार में हुआ था। उनके पिता देवेन्द्रनाथ टैगोर ब्रह्म समाज के प्रमुख विचारक थे। टैगोर बचपन से ही अत्यंत रचनात्मक, भावुक और स्वभाव से स्वतंत्र थे।
पक्ष | विवरण |
जन्म | 9 मई 1861 (ग्रेगोरियन कैलेंडर), 25 बोइशाख 1268 (बंगाली कैलेंडर) |
जन्म स्थान | जोड़ासांको, कोलकाता, ब्रिटिश भारत |
माता-पिता | देवेन्द्रनाथ ठाकुर और शारदा देवी |
शिक्षा | घरेलू शिक्षा, लंदन यूनिवर्सिटी कॉलेज में अध्ययन |
प्रमुख पहचान | गीतांजलि, विश्वभारती विश्वविद्यालय, रवीन्द्र संगीत |
राष्ट्रीय गान रचनाकार | भारत (जन गण मन), बांग्लादेश (आमार सोनार बांग्ला) |
मृत्यु | 7 अगस्त 1941 |
नाम में “ठाकुर” से “टैगोर” कैसे हुआ?
रवींद्रनाथ का मूल बंगाली उपनाम ठाकुर था। अंग्रेज़ों ने बंगाली उच्चारण को अपने तरीके से लिखने का प्रयास किया, जिससे यह नाम “Tagore” (टैगोर) बन गया। चूँकि अंग्रेज़ी में “ठ” ध्वनि नहीं होती, उन्होंने इसे “T” से उच्चारित किया और “Tagore” नाम अंग्रेज़ी लेखन और अंतरराष्ट्रीय मंच पर प्रचलित हो गया। यही नाम बाद में उनकी अंतरराष्ट्रीय पहचान का हिस्सा बन गया।
शिक्षा
टैगोर को पारंपरिक शिक्षा प्रणाली कभी पसंद नहीं आई। उन्होंने घर पर ही अधिकांश शिक्षा प्राप्त की। बाद में उच्च अध्ययन के लिए वे इंग्लैंड गए और लंदन विश्वविद्यालय में कानून की पढ़ाई शुरू की, लेकिन बीच में ही भारत लौट आए क्योंकि उनका झुकाव साहित्य और कला की ओर अधिक था।
नोबेल पुरस्कार
1913 में टैगोर को कविता संग्रह “गीतांजलि” के लिए साहित्य का नोबेल पुरस्कार मिला। वे यह पुरस्कार प्राप्त करने वाले पहले एशियाई बने। इस सम्मान ने भारतीय साहित्य को अंतरराष्ट्रीय पहचान दिलाई।
राष्ट्रगान के रचनाकार
टैगोर ने भारत का राष्ट्रगान “जन गण मन” और बांग्लादेश का राष्ट्रगान “आमार सोनार बांग्ला” लिखा। दो देशों का राष्ट्रगान लिखने वाले वे एकमात्र साहित्यकार हैं।
शिक्षा में योगदान: एक नई सोच का बीज
ठाकुर का मानना था कि शिक्षा केवल ज्ञान का संप्रेषण नहीं, बल्कि आत्मा की अभिव्यक्ति है। 1921 में शांतिनिकेतन में उन्होंने ‘विश्वभारती विश्वविद्यालय’ की स्थापना की, जो प्रकृति के संग तालमेल बिठाकर खुली और रचनात्मक शिक्षा को बढ़ावा देती है। उन्होंने पारंपरिक शिक्षा पद्धति की आलोचना करते हुए सीखने की प्रक्रिया को स्वतंत्र, कलात्मक और मानवीय बनाया।
स्वतंत्रता संग्राम में वैचारिक नेतृत्व
हालाँकि ठाकुर सीधे राजनीतिक आंदोलनों में शामिल नहीं हुए, लेकिन उनका विचार और लेखन स्वतंत्रता संग्राम को वैचारिक आधार देते रहे। जलियाँवाला बाग हत्याकांड के विरोध में उन्होंने 1919 में ब्रिटिश सरकार द्वारा दी गई नाइटहुड की उपाधि लौटा दी। उन्होंने ‘स्वदेशी आंदोलन’ का समर्थन किया और आत्मनिर्भरता को राष्ट्रीय अस्मिता से जोड़ा।
साहित्य और कला में अमर योगदान
रवीन्द्रनाथ ठाकुर का साहित्यिक संसार बेहद विशाल और विविधतापूर्ण था। उनकी रचनाओं में सामाजिक संवेदनशीलता, मानवीयता और आध्यात्मिक चेतना का गहरा प्रभाव दिखाई देता है।
प्रमुख कृतियाँ:
- कविता संग्रह: गीतांजलि, सोनार तोरी, मानसी, बालाका
- उपन्यास: गोरा, घर-बैठे (घरे-बाइरे), चोखेर बाली, नौकाडूबी
- कहानियाँ: काबुलीवाला, पोस्टमास्टर, अतिथि, क्षुधित पाषाण
- नाटक: डाकघर, चितरंगदा, चंडालिका, विसर्जन
- संगीत: 2,000+ गीत (रवीन्द्र संगीत)
रवीन्द्रनाथ ठाकुर के प्रसिद्ध उद्धरण
- “विश्वास वह पक्षी है जो अंधेरे में भी प्रकाश का आभास करता है और गाने लगता है।”
- “केवल पानी को देखते रहने से समुद्र पार नहीं किया जा सकता।”
- “मैं सोया और सपना देखा कि जीवन आनंद है। मैं जागा और देखा कि जीवन सेवा है। मैंने सेवा की और पाया कि सेवा ही आनंद है।”
निधन
7 अगस्त 1941 को रवींद्रनाथ टैगोर का निधन कोलकाता में हुआ। वे अपने पीछे साहित्य, संगीत, दर्शन और शिक्षा की एक ऐसी विरासत छोड़ गए हैं जो युगों तक मानवता का मार्गदर्शन करती रहेगी।
निष्कर्ष: गुरुदेव की विरासत
रवीन्द्रनाथ ठाकुर जयंती केवल उनके जन्मदिन का उत्सव नहीं, बल्कि एक चेतना है—जिसमें साहित्य, शिक्षा, राष्ट्रप्रेम और मानवता का संगम होता है। उनके विचार आज भी भारत और दुनिया को नैतिक दृष्टिकोण, सांस्कृतिक समृद्धि और रचनात्मक स्वतंत्रता की प्रेरणा देते हैं।